Tuesday, July 28, 2015

कांवड़ रूद्रभिषेकः






कांवड़ मेला, लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का मेला है। इसमें न सिर्फ श्रद्धालुओं की आस्था ही निहित है बल्कि धर्मनगरी के हजारों व्यापारियों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी माना जाता है। भोले बाबा तो ‘आशुतोष’ अर्थात शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं, भक्त शिव को प्रसन्न करने के लिए उनका जलाभिषेक करते है| सावन मास के शुरू होते ही कांवड़ यात्रा भी आरंम्भ हो जाती है इस यात्रा मे शिव भक्त जिन्हे कांवड़िया भी कहा जाता है, भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए शिव भक्त हरिद्वार, गंगोत्री या गोमुख से गंगा जल अथवा अपने शहर के आस पास की नदियों अथवा तालाब से जल ऊठा कर एक लम्बी पैदल यात्रा पर निकल पड़ते है, चाहे कितने भी कष्ट हो उनको पर वह शिव भक्ति मे लीन होकर सब सहते हुए, कांवड़ियों का अनवरत प्रवाह चलता ही रहता है अहर्निश और सावन मास की शिव अवतरण वाले दिन, शिवलिंग पर अर्पण कर देते हैं तथा अपनी यात्रा को पूर्ण समझते हैं।

   शिवरात्री (श्रावण कृष्णपक्ष त्रयोदशी +चतुर्दशी) पर भगवान (शंकर) आशुतोष के जलाभिषेक का विशेष महत्व है।

   लाखों की संख्या में भक्तगण बम-बम भोले की जयघोष के साथ जब रास्ते में चल रहे होते हैं तो सभी उनकी सेवा तथा स्वागत के लिए पलकें बिछा देते हैं। कांवड़ में भरे गांगा जल को जमीन पर भी नहीं रखा जाता यह भगवान के महावाक्यों के मान-सम्मान का प्रतीक है।  

1. कांवड़ क्या एक प्रचलन मात्र है ? 

2. शिव को जल क्यो चढाया जाता है?  

   इस विषय में धर्माचार्यों के अलग अलग मत है, पहला कि, ऐसा मानना है की समुंद्र मंथन सावन के महिने में ही हुआ था और जब समुंद्र मँथन के दौरान हलाहल नामक विष निकल आया जो समस्त संसार का नाश कर देता तब भगवान शिव ने ही आगे बढकर उस विष को पी लिया ओर अपने कण्ठ में जमा कर लिया जिस कारण उनका कण्ठ नीला पड गया और वह नीलकण्ठ महादेव के नाम से भी जाने गये, विष की गर्मी के काऱण सभी देवताओ ने गंगा मां का जल लेकर शिव के मस्तक पर जल डाला, जिससे शिव को शान्ति मिली, इसलिए ही सावन के महिने में गंगाजी के जल से शिव का जलाभिषेक किया जाता है और यहीं से कांवड यात्रा की शुरूआत हुई। दूसरी यह है के सतयुग में भगवान विष्णु के अवतार भगवान परशुराम ने सर्वप्रथम अपने माता पिता को पृथ्वी के चारों धर्मस्थलों की यात्रा कांवड़ से ही कराई थी। इसके बाद त्रेता युग में श्रवण कुमार को भी जब यह पता चला कि उनके अंधे माता पिता पवित्र स्थानों के जल से ठीक हो जाएंगी तो उन्होंने भी अपने माता पिता को कांवड़ में बैठाकर ही यात्रा कराई थी। तब से श्रावण मास में लाखों शिव भक्त भगवान शिव के जयकारों के साथ धर्मनगरी से गंगा जल भरते हैं और फिर संकल्प लेते हैं। इस तरह नियमों का पालन करते हुए कांवड़िए बाबा धाम आते हैं और जलाभिषेक करते हैं। कांवड़ के एक तरफ का जल शिवलिंग के लिए होता है और दूसरी तरफ का जल वासुकीनाथ के लिए। एक अन्य पात्र में भी जल होता है जिसका उपयोग शुद्धि के लिए होता है। कुछ कांवड़िए अपने साथ अपनी पत्नी और बच्चों के नाम से भी जल ले जाते हैं। 

मुख्यतः कांवड़ 3 प्रकार की होतीं हैं।


1. डाक कांवड़/बैकुंठी कांवड़- ये यात्रा अखंड चलती है जिसको डाक कांवड़ कहा जाता है निरंतर जीप, वैन, मिनी ट्रक, गाड़ियाँ, स्कूटर्स, बाईक्स आदि पर सवार भक्त अपनी यात्रा अपने घर से गंतव्य स्थान की दूरी के लिए निर्धारित घंटे लेकर चलते हैं और अपने इष्ट के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं बहुत सी कांवड़ तो बहुत ही विशाल होती हैं जिनको कई लोग उठाकर चलते हैं। 

2. झूला कांवड़- इसमें केवल एक ही व्यक्ति होता है, थक जाने पर कांवड़ को पेड़ पर या हेंगर पर रख कर विश्राम करते हैं। स्थान -स्थान पर कांवड़ सेवा शिविर आयोजित किये जाते हैं,जिनमें निशुल्क भोजन, जल, चिकित्सा सेवा, स्नान विश्राम आदि की व्यवस्था रहती है मार्ग स्थित स्कूलों, धर्मशालाओं, मंदिरों में विश्राम करते हुए ये कांवड़ धारी, रास्ते में स्थित शिवमंदिरों में पूजार्चना करते हुए नाचते गाते, “बम बम बोले बम ” भोले की गुंजार के साथ चलते हैं। 

3. खड़ी कांवड़- इसमें जोड़ा चलता है, एक के कंधे पर कांवड़ और दूसरा साथ रहता है। जब पहले को कुछ भी करना है तो दुसरे को दे कर शौच इत्यादि जाता है और किसी भी सवारी से जा कर अपने साथी के साथ मिल जाता है। खड़ी कांवड़ में  कांवड़िए बिना अन्न ग्रहण किए और बिना रुके-बैठे यात्रा तय करते हैं। ये सबसे कठिन होती है लेकिन कांवड़िए इसे भोले की भक्ति में डूबकर प्रसन्नता से करते हैं।

“बम बम बोले बम ”

-संकलित